रात के अंधेरे में
इन आँखों ने कई बार
ज़िन्दगी को बिखरते देखा है
ख़्वाबों की इमारत टूटते
तो उम्मीदों का दामन छूटते देखा है
बादलों को रंग बदलते
तो तारों को डूबते देखा है
कई बार आंसुओं से छलकती खामोशी
तो कभी हँसी को गूंजते देखा है
हाँ , रात के इस अंधेरे में कई बार
ख़ुद को बिगड़ते
तो कभी संवरते देखा है
शायद तभी कहते अंधेरे को घना हैं
पहलू में अपने समेटे कायनात
न जाने ये कब से तना है !!