तड़पती हुई बेसहारा ,
अपनी ही साँसों में उलझी
मैं ही क्यूँ ?
शरीर पर कई हाथों को महसूस करती
उनकी हँसी में ,अपने आँसू पीती
चीख को सुनती ,
मैं ही क्यूँ ?
स्वयं से घृणा करती ,
हर ज़ख्म को बर्दाश्त करती,
फ़िर भी जिंदा ,
मैं ही क्यूँ?
न हमदर्दी,न दया,
न गलती,फ़िर भी सज़ा
यूँ लज्जित हुई
मैं ही क्यूँ?
घना अभी और भी है अँधेरा,
साया सच का और भी कारा,
पर इनका बोझ उठाती
मैं ही क्यूँ?
हर अंश को समेट
खड़ी हुई
फ़िर भी कचडे सी बिखरी
मैं ही क्यूँ?
सवाल भी मैं
जवाब भी मैं
फ़िर भी सवालों के जवाब देती
मैं ही क्यूँ ?
उनसे भी कोई पूछे
जिनकी हैवानियत का शिकार थी मैं
इज्ज़त खो कर भी यूँ,हर पल बेईज्ज़त होती
मैं ही क्यूँ?
छिनी मेरी हँसी ,आंखों की चमक
बस झुकी रहती हैं नज़रें मेरी
और उससे भी कहीं ज़्यादा झुकती
मैं ही क्यूँ?
अपनों ने मुझे गंदगी समझा
फ़िर पराया क्या समझता कोई
यूँ ही सड़ती रही
मैं ही क्यूँ?
किसी और के गुन्नाह को
इस भीड़ में
छुपाती फिरती
मैं ही क्यूँ?
ये समाज तमाशबीन ही है
जो खड़ा ताकता रहा
सच के लिए लड़ती रही अकेली
मैं ही क्यूँ?