इज़हार-ऐ-दिल

Sunday, August 30, 2009
प्यार बहुत खूबसूरत होता है
और उसका एहसास
और भी ज्यादा खूबसूरत

प्यार का इज़हार करने से पहले
और यूँ इकरार करने से पहले

निगाहें आपके सामने ही उठा करती थीं

और जब से हमने इस चाहत को चाहा है

नज़रें सिर्फ़ आपको देख झुका करती हैं

तन्हाई में बैठ , आपको याद कर

हम अक्समात मुस्कुराया करते हैं

और आप जब सामने आते हैं

तो पलकें झुकाया करते हैं

क्या जाने कितने लोग?

Saturday, August 22, 2009
बेगुनाही की सज़ा पाते हैं

न जाने कितने लोग ?

रोते और चिल्लाते हैं

न जाने कितने लोग ?

बेसहारा हो जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

सिसकते रह जाते हैं

न जाने कितने लोग?

टुकडों में बिखर जाते हैं


न जाने कितने लोग ?

अपाहिज हो जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

जल कर खाक हो जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

पहचान में भी न आते हैं

न जाने कितने लोग ?

पानी में बह जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

पुलों के नीचे दब जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

भूख से मर जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

मासूमों का खून बहाते है

न जाने कितने लोग ?

सच के मुखौटे में झूठ छुपाते हैं

न जाने कितने लोग?

अपनी जेब भरे जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

झूठी हमदर्दी जताते हैं

न जाने कितने लोग ?

इन्साफ की आवाज़ उठाते हैं

न जाने कितने लोग ?

आवाज़ को अनसुना कर जाते हैं

न जाने कितने लोग ?

बस डर में ज़िन्दगी बिताते हैं

न जाने कितने लोग ?

फ़िर भी समझ न पाते हैं

न जाने कितने लोग ?

अपना कर्तव्य निभाते हैं

क्या जाने कितने लोग ?

अनजाना रिश्ता

Thursday, August 20, 2009
कद उसका ,
कुछ बहुत बड़ा न था
पर जिम्मेदारियों का बोझ
कहीं बड़ा उसके कंधे चढा था
याद है मुझे
लाल रंग का एक फटा सा कपड़ा
जो उसके कंधे पर पड़ा था
और उससे झांकती
एक नन्ही सी जान
था वो उसका भाई
उसकी आंखों में मैंने पढ़ा था
लू के थपेडे और धूप की तपिश
बर्दाश्त करती
जीने के लिए लड़ रही थी
एक गाड़ी से दूसरी तक
हाथ फैलाये विंनती कर रही थी
एक पायी तो कया
रोटी का एक टुकडा भी
नसीब न था
उसकी अरज को हर राहगीर ने
आगे बढ़ा दिया
भूख को जब
पानी से बुझाने की सोची
तो नलके के मालिक ने भी
उसे भगा दिया
सड़क के किनारे पड़े डिब्बे से
उसने कुछ निकाला
शायद कुछ खाने को था
पुरा या आधा निवाला
उसके हिस्से तो कुछ न आया
पुरा ही अपने भाई को खिलाया
सिग्नल हुआ और ड्राईवर ने
गाड़ी को आगे बढाया

फ़िर उस रस्ते पर
कभी दिखे नहीं दोनों
न ही उनके बारे में
किसी ने जाना
अखबार में जब तस्वीर देखि
तब मैंने पहचाना
सड़क किनारे जो लावारिस पड़े थे
वही थे वो मासूम
जो किसी काली गाड़ी से
कुचले गए थे
ये मैंने तब क्यूँ न जाना
उनकी मौत पर,
न कोई रोया ,न चिल्लाया
यूँ ही गुमनाम सी ज़िन्दगी थी उनकी
और न जाने उन जैसे कितनों की
न ही जिनका कोई अपना
समझा सभी ने उन्हें पराया

अपनी ही ज़िन्दगी में मशरूफ
किसे फुर्सत है इतनी
किसी और के दर्द का
जो एहसास करे
उम्मीद करती हूँ
क़यामत से पहले हो ऐसी सुबह
जब इंसान ख़ुद से ज्यादा
इंसानियत से प्यार करे

मैं ही क्यूँ ?

Tuesday, August 18, 2009

तड़पती हुई बेसहारा ,
अपनी ही साँसों में उलझी
मैं ही क्यूँ ?
शरीर पर कई हाथों को महसूस करती
उनकी हँसी में ,अपने आँसू पीती
चीख को सुनती ,
मैं ही क्यूँ ?
स्वयं से घृणा करती ,
हर ज़ख्म को बर्दाश्त करती,
फ़िर भी जिंदा ,
मैं ही क्यूँ?
न हमदर्दी,न दया,
न गलती,फ़िर भी सज़ा
यूँ लज्जित हुई
मैं ही क्यूँ?
घना अभी और भी है अँधेरा,
साया सच का और भी कारा,
पर इनका बोझ उठाती
मैं ही क्यूँ?
हर अंश को समेट
खड़ी हुई
फ़िर भी कचडे सी बिखरी
मैं ही क्यूँ?
सवाल भी मैं
जवाब भी मैं
फ़िर भी सवालों के जवाब देती
मैं ही क्यूँ ?
उनसे भी कोई पूछे
जिनकी हैवानियत का शिकार थी मैं
इज्ज़त खो कर भी यूँ,हर पल बेईज्ज़त होती
मैं ही क्यूँ?
छिनी मेरी हँसी ,आंखों की चमक
बस झुकी रहती हैं नज़रें मेरी
और उससे भी कहीं ज़्यादा झुकती
मैं ही क्यूँ?
अपनों ने मुझे गंदगी समझा
फ़िर पराया क्या समझता कोई
यूँ ही सड़ती रही
मैं ही क्यूँ?
किसी और के गुन्नाह को
इस भीड़ में
छुपाती फिरती
मैं ही क्यूँ?
ये समाज तमाशबीन ही है
जो खड़ा ताकता रहा
सच के लिए लड़ती रही अकेली
मैं ही क्यूँ?